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शुक्रवार, 28 मार्च 2025

पहाड़ की चोटी पर पहुंचने का सपना


एक छोटे से गाँव में, राहुल नाम का एक लड़का रहता था। राहुल को पहाड़ों से बहुत प्यार था। वह हमेशा ऊँचे पहाड़ों को देखता और सोचता, "काश, मैं भी इन पहाड़ों की चोटी पर पहुँच पाता।"

गाँव के पास ही एक बहुत ऊँचा पहाड़ था, जिसकी चोटी बादलों से ढकी रहती थी। गाँव के लोग कहते थे कि उस पहाड़ की चोटी पर पहुँचना बहुत मुश्किल है, और कोई भी आज तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है। लेकिन राहुल ने हार नहीं मानी। उसने ठान लिया कि वह एक दिन उस पहाड़ की चोटी पर ज़रूर पहुँचेगा।
राहुल ने पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी शुरू कर दी। उसने रोज़ाना दौड़ना शुरू किया, ताकि उसके पैर मज़बूत हो सकें। उसने पहाड़ों पर चढ़ने के लिए ज़रूरी सामान इकट्ठा किया, जैसे कि रस्सी, कुल्हाड़ी और पानी।
एक दिन, राहुल ने पहाड़ पर चढ़ना शुरू किया। शुरुआत में, उसे थोड़ी दिक्कत हुई, लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा। रास्ते में कई बार उसे थकान महसूस हुई, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी।
कई दिनों तक लगातार चढ़ने के बाद, राहुल आखिरकार पहाड़ की चोटी पर पहुँच गया। जब उसने चोटी से नीचे देखा, तो उसे पूरा गाँव एक छोटे से खिलौने की तरह दिखाई दिया। राहुल को बहुत खुशी हुई। उसे एहसास हुआ कि अगर हम मेहनत और लगन से काम करें, तो हम कुछ भी हासिल कर सकते हैं।
जब राहुल गाँव वापस आया, तो गाँव के लोगों ने उसका स्वागत किया। उन्होंने राहुल की हिम्मत और लगन की तारीफ की। राहुल ने उन्हें बताया कि पहाड़ की चोटी पर पहुँचना मुश्किल ज़रूर था, लेकिन नामुमकिन नहीं।
सीख:
 * कभी भी अपने सपनों को छोटा मत समझो।
 * मेहनत और लगन से हर मुश्किल काम को आसान बनाया जा सकता है।
 * हार मत मानो, और हमेशा आगे बढ़ते रहो।
 * अपनी क्षमताओं पर विश्वास रखो।

लालची बंदर और जादुई पेड़


एक घने जंगल में, एक बहुत लालची बंदर रहता था जिसका नाम मोंटू था। मोंटू को हमेशा और चाहिए होता था, चाहे वह फल हो, मेवे हों, या कुछ और हो। एक दिन, जंगल में घूमते हुए, उसे एक चमकदार, जादुई पेड़ मिला। यह पेड़ सोने के फलों से लदा हुआ था!

मोंटू की आँखें चमक उठीं। उसने सोचा, "अगर मैं इन सभी फलों को ले लूं, तो मैं जंगल का सबसे अमीर बंदर बन जाऊंगा!"

उसने पेड़ से सारे फल तोड़ लिए और उन्हें एक बड़ी टोकरी में भर लिया। टोकरी इतनी भारी थी कि उसे ले जाना मुश्किल हो रहा था, लेकिन मोंटू ने हार नहीं मानी। वह अपने घर की ओर हाँफते हुए चला, उसके दिमाग में केवल सोना ही सोना था।
जैसे ही वह अपने घर के पास पहुँचा, उसने देखा कि एक बूढ़ा बंदर पेड़ के नीचे बैठा है। बूढ़ा बंदर बहुत भूखा और थका हुआ लग रहा था। मोंटू ने सोचा, "अगर मैं इस बूढ़े बंदर को कुछ फल दे दूं, तो वह मुझे परेशान करता रहेगा।"

लेकिन फिर, उसने बूढ़े बंदर के चेहरे पर उदासी देखी। उसे एहसास हुआ कि उसने कितना स्वार्थी काम किया है।
मोंटू ने अपनी टोकरी खोली और बूढ़े बंदर को कुछ फल दिए। बूढ़ा बंदर बहुत खुश हुआ। उसने मोंटू को धन्यवाद दिया और उसे बताया कि जादुई पेड़ केवल उन लोगों को फल देता है जो दूसरों के साथ दयालु होते हैं।
मोंटू को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने बूढ़े बंदर से माफी मांगी और उसे वादा किया कि वह कभी भी इतना लालची नहीं होगा।

उस दिन से, मोंटू एक अलग बंदर बन गया। वह हमेशा दूसरों की मदद करता था और उसने कभी भी सोने के फलों के बारे में नहीं सोचा। वह जानता था कि सच्ची खुशी दूसरों की मदद करने में है, न कि सोने के फलों में।
सीख: लालच एक बुरी आदत है। हमें हमेशा दूसरों के साथ दयालु और उदार होना चाहिए।

मंगलवार, 28 मई 2024

जीवन में सफलता

 एक लंबी कहानी है, एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक ऐसा लड़का था जिसका नाम विक्रम था। विक्रम बहुत ही उत्साही और सपने देखने वाला लड़का था। उसका सपना था कि वह अपने गाँव का नाम रोशन करे और लोगों की मदद करे। लेकिन उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वह अपने सपने को पूरा कर सके।

एक दिन, विक्रम ने अपने दोस्त से सोनू से अपने सपनों के बारे में बात की। सोनू ने उसे सलाह दी कि वह एक उद्यम शुरू करे जिससे उसे पैसे कमाने का मौका मिले।

विक्रम ने अपने दोस्त की सलाह मानी और उसने गाँव में एक छोटा सा दुकान खोल दिया। उसने अपनी दुकान में विभिन्न सामान बेचने का काम शुरू किया। वह अपने काम में बहुत मेहनती था और उसकी दुकान का नाम 'सपना बाजार' रखा था।

धीरे-धीरे, विक्रम की दुकान में ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी और उसकी कमाई भी बढ़ गई। उसने अपनी कमाई का एक हिस्सा समाज के गरीबों की मदद में खर्चने का निर्णय लिया।

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विक्रम की यह भलाई कामयाबी की उसकी दुकान ने गाँव के लोगों के दिलों में स्थान बना लिया। उसकी मेहनत, ईमानदारी और समर्पण ने उसे सफलता की नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

इस कहानी से हमें यह सिख मिलती है कि सपनों को पूरा करने के लिए मेहनत, समर्पण, और ईमानदारी की आवश्यकता होती है। जब हम अपने सपनों के लिए मेहनत करते हैं, तो हमें जीवन में सफलता ज़रूर मिलती है।

लालच से बड़ी कोई बुराई नहीं

यह एक बहुत ही प्रेरणादायक कहानी है जिसमें एक बूढ़ी माँ है जो अपने दो पुत्रों को बहुत प्रेम करती थी। उनके बड़े बेटे का नाम रामु है और छोटे बेटे का नाम श्यामु है।

एक दिन, बूढ़ी माँ ने अपने पुत्रों को साथ बुलाया और उन्हें सोने के ज्वैलरी दी। रामु ने अपने भाई को देखकर सोचा, "मेरा भाई बहुत ही बड़ा लालची है। मैं इसका ख्याल रखूँगा।" लेकिन श्यामु को इस विचार का ध्यान नहीं था।

कुछ दिन बाद, रामु ने अपने माँ को बताया कि श्यामु ने सोने के ज्वैलरी को चुरा लिया है। बूढ़ी माँ को बहुत दुःख हुआ, लेकिन उन्होंने श्यामु को माफ किया और कहा, "बेटा, लालच से बड़ी कोई बुराई नहीं होती। लेकिन अब से तुम्हें अपनी गलती समझनी चाहिए और इसे दुहराना नहीं चाहिए।"

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श्यामु ने गलती समझ ली और वह अपने भैया और माँ के प्रति सच्चे मन से उत्तरदायी हो गया। इस कहानी से हमें यह सिख मिलती है कि लालच से बड़ी कोई बुराई नहीं होती और हमें अपनी गलतियों से सीखना चाहिए।

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मंगलवार, 21 मई 2024

बचपन का दोस्त


गांव के छोटे से स्कूल में रमेश और सुरेश साथ-साथ पढ़ते थे। दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे। स्कूल के बाद वे खेतों में खेलते, तालाब में तैरते और पेड़ों पर चढ़कर आम तोड़ते। उनके बीच की दोस्ती इतनी गहरी थी कि गांव वाले भी उन्हें 'राम-लखन' कहकर बुलाते थे।

एक दिन स्कूल में प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। सभी बच्चों को एक निबंध लिखना था। रमेश ने कड़ी मेहनत की और अपना सर्वश्रेष्ठ निबंध लिखा। सुरेश ने भी पूरा प्रयास किया, लेकिन उसका निबंध उतना अच्छा नहीं बन पाया। जब परिणाम घोषित हुआ, तो रमेश को प्रथम स्थान मिला। सुरेश खुश तो हुआ, लेकिन कहीं न कहीं उसके मन में थोड़ी सी जलन भी थी।

उस रात सुरेश सो नहीं सका। वह सोचता रहा कि कैसे रमेश ने उसे पीछे छोड़ दिया। अगली सुबह जब दोनों स्कूल जा रहे थे, तो सुरेश ने देखा कि रमेश का चेहरा मुरझाया हुआ है। उसने पूछा, "क्या हुआ रमेश, तू ठीक तो है?"

रमेश ने बताया कि उसके पिता बीमार हैं और इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। सुरेश को अपनी जलन पर शर्मिंदगी महसूस हुई। उसने तुरंत अपने गुल्लक को तोड़ा और सारी बचत रमेश को दे दी। रमेश की आँखों में आँसू आ गए और उसने सुरेश को गले से लगा लिया।

इस घटना के बाद सुरेश ने समझा कि सच्ची दोस्ती में ईर्ष्या के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। दोनों दोस्तों ने मिलकर रमेश के पिता का इलाज करवाया और वे जल्दी ही स्वस्थ हो गए।

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समय बीतता गया और दोनों दोस्त बड़े हो गए। रमेश एक सफल डॉक्टर बन गया और सुरेश एक प्रसिद्ध वकील। वे अब भी एक-दूसरे के साथ खड़े रहते, हर सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ देते। उनकी दोस्ती आज भी उतनी ही मजबूत थी, जितनी बचपन में थी।

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि सच्ची दोस्ती में प्यार, सहयोग और समर्पण होना चाहिए। ईर्ष्या और द्वेष के लिए उसमें कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यही सच्ची दोस्ती का सार है।

बुधवार, 31 अगस्त 2022

भाग्य की खोज

 जूनागढ़ गांव के सबसे धनी परिवार में हरिया का जन्म हुआ।  घर में किसी चीज की कोई कमी ना थी इसलिए बड़े लाड प्यार से उसका लालन-पालन हुआ।  समय के साथ-साथ हरिया युवा हो गया।  पर वह कोई काम धंधा नहीं करता था। उसके माता-पिता जब उसे काम में हाथ बंटाने के लिए कहते तो कभी वह उनका कहना मान लेता और कभी अनसुना भी कर देता।  


इसी प्रकार दिन गुजर रहे थे कि एक गांव में महामारी फैल गई जिसके चलते उसके माता पिता स्वर्ग सिधार गए। अब हरिया पर अपने भरण-पोषण की समस्या आ खड़ी हुई, क्योंकि बाप- दादा द्वारा कमाई की संपत्ति भी धीरे-धीरे खत्म हो चली थी। एक दिन हरिया अपने  हालत से परेशान होकर अपने घर के बाहर बैठा था।  तभी अचानक उसने अपनी छाती पीट पीट कर रोना शुरू कर दिया। रोते रोते वह बोलने लगा-  ‘’मेरा तो भाग्य ही खराब है, ना जाने मेरा भाग्य कहां चला गया है। अब मैं क्या करूंगा।  जब हरिया  ऐसे कह रहा था, तभी उस गांव के अध्यापक वहां से गुजर रहे थे। जब उन्‍होंने हरिया को यूं  अपने भाग्य को कोसते देखा तो वह उसके पास आ गए और उससे बोले,  ‘’हरिया तुम्हारी छाती पीटने से तुम्हारा भाग्य तुम्हारे पास वापस आने वाला नहीं है। तुम्हें खुद ही जाकर उसे वापस लाना होगा। यह सुनकर हरिया मास्टर जी से बोला- “मास्‍टर जी,मैं उसे जाकर वापस तो ले आऊंगा। पर मैं उसे ढूंढ कहां?”


यह सुनकर मास्‍टर जी बोले- “यह तो मैं भी नहीं जानता कि तुम्‍हारा भाग्‍य कहां गया होगा। पर इस गांव के पूर्व में जो पहाड़ की चोटी है। उस पर एक महात्‍मा जी रहते हैं उन्‍हें अवश्‍य ही पता होगा। वह तुम्‍हें अवश्य ही बता सकते हैं कि तुम्‍हारा भाग्‍य कहां गया होगा?  तुम्हें उनके पास जाना चाहिए!”


 इतना सुनते ही हरिया की आंखों में चमक आ गयी।  उसने मास्टर जी को धन्यवाद देते हुए कहा,  “मास्टर जी मैं कल सुबह उनसे मिलने जाऊंगा।”    अगली सुबह हरिया जल्दी उठा।  उसने कुछ अपने खाने पीने का सामान अपने बैग में रखा और अपनी यात्रा पर निकल पड़ा। 


अपने गांव से निकलकर हरिया जब चलते-चलते जंगल में पहुंचा।  तभी घोड़े पर सवार एक लुटेरा उनके सामने आकर खड़ा हो गया। जिसे देखकर हरिया कांपने लगा।  तभी लुटेरे ने कड़कती आवाज में कहा-  “तुम्हारे पास जो कुछ है सब मेरे हवाले कर दो, नहीं तो मैं तुम्हें मार डालूंगा” 


यह सुनकर हरिया डर गया और वह डरते डरते बोला,  “मेरे पास तुम्हें देने को कुछ नहीं है। मेरा भाग्य तो पहले ही मुझसे दूर जा चुका है।”


“झूठ मत बोलो, तुम्हारे बैग में जो कुछ है उसे जमीन पर रख दो।” लुटेरे ने बात काटते हुए कहा।  


हरिया ने अपने खाने के लिए जो सामान बैग में रखा था, वह सब निकाल कर उसने जमीन पर रख दिया। लुटेरे ने फिर हरिया से पूछा,  “तुम कौन हो? और तुम कहां से आ रहे हो? इधर कहां जा रहे हो?”


तब हरिया ने उसे बताया!  मेरा नाम हरिया है और मैं जूनागढ़ का रहने वाला हूँ!  मैं अपने भाग्य को खोजने के लिए निकला हूँ। पर मुझे उसका पता मालूम नहीं है।  उस पहाड़ी पर रहने वाले महात्मा जी को अवश्य उसका पता मालूम होगा। इसलिए मैं उन्हीं के पास जा रहा हूँ।’’  यह सुनकर लुटेरे ने कड़कती आवाज में कहा,  ‘’मैं तुम्हें तभी आगे बढने दूंगा, यदि तुम मेरे एक सवाल का जवाब महात्मा जी से ला कर दोगें तो।’’  


तुम्हारा सवाल क्या है? 


“मेरा भाग्य कब उदय होगा?” 


 यदि तुम मेरे इस सवाल का जवाब महात्मा जी से ला कर दोगे तो मैं तुम्हें इनाम दूंगा! 


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हरिया ने हामी भरी और आगे बढ़ गया। चलते चलते दोपहर भी चुकी थी। भूख प्यास से बेहाल वह चला जा रहा था।  उसके पेट में भूख के कारण दौडने  वाले चूहे भी अब हड़ताल पर बैठ चुके थे।  तभी उसे एक झरना और फलों से लदा बगीचा दिखाई दिया। तब हरिया सबसे पहले झरने के पास गया और उसने अपनी प्यास बुझाई। फिर वह फलों से लेदे  बगीचे में आया। उसने कुछ फल थोड़े और खाने बैठ गया। जैसे ही उसने पहला फल मुंह में डाला उसे वैसे ही उसने थूक दिया।  फिर उसने दूसरा फल मुंह में डाला उसे भी उसने थूक दिया। फिर उसने तीसरा फल मुंह में डाला उसे भी उसने थूक दिया।  जब वह चौथा फल उठाकर मुंह में डालने ही वाला था।  तभी संयोग से वहां एक व्यक्ति आ गया। उसने जब हरिया को यू फलों को थूकते देखा तो उसने हरिया से कहा, “जो भी इन फलों को खाता है, वह इन्‍हें  यूं ही थूक देता है।” 


“आपको कैसे पता?”  हरिया ने उस व्यक्ति से प्रश्न किया। “वैसे तुम कौन हो? और यहां कैसे आ गए?” उस व्यक्ति ने हरिया से  सवाल किया! 


तब हरिया ने उसे भी वही सब कुछ बताया। जो उसने लुटेरे को बताया था। इतना सुनते ही बगीचे का मालिक बोला “तुम तो महात्मा जी के पास जा ही रहे हो तो उनसे मेरे भी एक सवाल का जवाब लेते आना! बदले में मैं तुम्हें इनाम दूंगा  


“तुम्हारा सवाल क्या है?” हरिया ने बगीचे के मालिक से पूछा।


“मेरा सवाल बस इतना सा है कि मेरे बगीचे के फल कड़वे क्यों आते हैं? और मैं उन्हें मीठा कैसे बना सकता हूँ?”


यह सुनकर हरिया ने कहा,  “ठीक है भाई! मैं तुम्हारे सवाल का भी जवाब महात्मा जी से लेकर आऊंगा1”


यह कहकर हरिया आगे बढ़ गया। चलते-चलते रात घिर आई थी। हरिया भूख से बेहाल हुआ जा रहा था।  तभी उसे एक महलनुमा घर दिखाई दिया।  उसके मन में विचार आया क्यों ना रात यहां गुजार कर सुबह सवेरे महात्‍मा जी के दर्शन किए जाए।  यह सोचकर वह घर के अंदर चला गया। वहां उसे एक दंपत्ति और उनकी एक बेहद सुंदर बेटी मिली।


उन्होंने हरिया को अपना अतिथि मानकर भोजन कराया। भोजन करने के बाद दंपत्ति ने उसके यहां आने का कारण जानना चाहा। तब हरिया ने उन्हें बताया मैं अपने भाग्य को खोजने जा रहा हूं मुझे उसका पता मालूम नहीं है।  पर पहाड़ पर रहने वाले महात्मा जी को अवश्य उसका पता मालूम है। इसलिए मैं उन्हीं के पास जा रहा हूँ।  


तब उस दंपति ने उससे कहा,  “हरिया यदि तुम महात्मा जी से हमारे भी एक सवाल का जवाब लाकर दोगे, तो हम तुम्हें इनाम देंगे।”


“आपका सवाल क्या है?”  हरिया ने पूछा।  


“तुम हमारी बेटी से तो मिल ही चुके हो। पर वह कभी खुश नहीं रहती।  यदि तुम महात्मा जी से इसके खुश रहने का इलाज पूछ कर आओगे, तो हम तुम्हें इनाम देंगे।” यह सुनकर हरिया बोला,  “ठीक है मैं आपके सवाल का भी महात्मा जी से जवाब लेकर आऊंगा।”  


अगले दिन सुबह हरिया उस दंपति से विदा लेकर महात्मा जी के आश्रम की तरफ चल पड़ा जब हरिया पहाड़ की चोटी पर पहुंचा, महात्मा जी अपने ध्यान में मग्न थे।  


हरिया ने उन्हें प्रणाम किया और फिर उनके पास ही जमीन पर बैठ गया।  कुछ देर बाद जब महात्‍मा जी की आंखें खुली तब हरिया ने फिर से प्रणाम किया।

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महात्मा जी ने उसे आशीर्वाद दिया और उसके आने का कारण पूछा। तब हरिया ने उन्हें बताया कि मेरे माता पिता की मृत्यु के बाद मेरा भाग्य मुझसे दूर चला गया है। पर मैं नहीं जानता वह कहां गया है।  किंतु मुझे पता है कि आप सब जानते हैं, कि वह कहां गया होगा।  कृपया आप मुझे उसका पता बता दीजिए। ताकि मैं उसे खोज कर अपने साथ वापस ले जा सकूं।  इसलिए मैं आपके पास आया हूं यह सुनकर महात्मा जी बोले, “तुम्हारा भाग्य तो मेरे पास ही आया है।”


“तो फिर महाराज आप मेरे भाग्‍य को मेरे साथ चलने के लिए कहिए।” हरिया ने हाथ जोड़कर महात्मा जी से कहा।


“नहीं मैं उसे तुम्हारे साथ नहीं भेज सकता।” महात्मा जी ने कहा।  महात्मा जी मैं अपने भाग्य को अपने साथ लिए बिना वापस नहीं जाऊंगा। आप उसे कृपा का मेरे साथ चलने के लिए कहिए।  हरिया यू बार-बार महात्मा जी से विनती करने लगा।  


तब महात्मा जी कुछ देर मौन रहने के बाद हरिया से बोले,  “हरिया में तुम्हारे भाग्य को तुम्हारे साथ तो नहीं भेज पाऊंगा। पर हां, मैं उसे तुम्हारे पीछे- पीछे अवश्य भेज सकता हूँ।”


हरिया ने हाथ जोड़कर महात्मा जी से कहा,  “ठीक है महाराज! आप उसे मेरे पीछे- पीछे ही सही। उसे मेरे पास अवश्‍य भेज दीजिए!” “हां हां! हरिया में उसे तुम्‍हारे पीछे- पीछे अवश्य भेज दूंगा”  महात्मा जी ने उसे आश्वस्त किया। उसके बाद हरिया ने अपनी यात्रा के दौरान मिले अन्य व्यक्तियों के सवालों के जवाब भी महात्‍मा जी से प्राप्त किए।  फिर हरिया महात्‍मा जी से विदा लेकर अपने घर की ओर चल दिया।


 सबसे पहले हरिया महलनुमा घर वाले दंपत्ति के पास पहुंचता है। उन्हें उनके सवाल का जवाब देकर बिना समय गवाएं अपनी यात्रा फिर से आरंभ कर देता है।


फिर वह झरने के पास वाले फलों के बगीचे में पहुंचता है। फलों के बगीचे में पहुंचते ही हरिया को बगीचे का मालिक दिखाई दे जाता है। वह जल्दी-जल्दी उस तक पहुंचता है और उसे उसके सवाल का जवाब जो महात्मा जी ने दिया था बताकर अपनी यात्रा फिर से शुरू कर देता है।


चलते चलते जैसे हरिया जंगल में पहुंचता है।  तभी लुटेरा उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है और हरिया को पहचान लेता है।


“तुम्हारी यात्रा कैसी रही? क्या तुम मेरे सवाल का जवाब लेकर आए हो?” लुटेरा उससे पूछता है।


हरिया हां में सिर हिलाता है।  जिसे देखकर लुटेरा कहता है,  “डरो मत। मुझे खुल कर बताओ। महात्‍मा जी ने मेरे सवाल का क्या जवाब दिया।”


तब हरिया लुटेरे को बताता है कि वे उनके सवाल के जवाब के साथ साथ दो अन्य व्यक्तियों के सवालों के जवाब महात्मा जी से लेकर आया था और उन्हें जवाब बता कर ही आ रहा है यह सुनकर लुटेरे की जिज्ञासा बढ़ जाती है।


उससे हरिया से कहा,  “मुझे सब कुछ, उन दो व्यक्तियों के विषय में, उनके सवालों और महात्मा जी के जवाबों के विषय में खुल कर बताओ।”


तब हरिया उसे बताता है कि यहां से कुछ दूर एक झरना है। उस झरने के पास एक फलों का बगीचा है। उस बगीचे में सभी फल कड़वे आते हैं। इसलिए उस बगीचे का मालिक महात्मा जी से यह जानना चाहता था कि उसके बगीचे के फल मीठे कैसे होंगे। यह सुनकर लुटेरा बोला,  “अच्छा अब यह बताओ महात्मा जी ने इसका क्या जवाब दिया?”


महात्मा जी ने बताया है कि जिस झरने के पानी से फलों के बगीचे की सिंचाई होती है। उसके नीचे सोने का खजाना छिपा है। यदि बगीचे का मालिक वहां से उस खजाने को हटा देगा। तो उसके बगीचे के फल मीठे हो जाएंगे।  


“अच्छा अब यह बताओ बगीचे के मालिक ने तुम्हें कुछ इनाम दिया।”  


लुटरे ने हरिया से फिर प्रश्न किया।


“हां! बगीचे का मालिक कह रहा था, यदि मैं कुछ देर इंतजार करूं तो व‍ह झरने के नीचे से खजाना निकाल लेगा और वे इनाम के रूप में मुझे खजाना दे देगा।” हरिया ने उत्तर दिया।


“तो तुमने सारा खजाना ले लिया।” लुटेरे ने फिर से पूछा।  


“नहीं! मैंने उसे बता दिया कि मेरा भाग्य तो मेरे पीछे-पीछे आ रहा है इसलिए मैं खजाना निकालने तक का इंतजार नहीं कर सकता मैं जल्द से जल्द अपने घर पहुंच जाना चाहता हूँ!” अच्छा अब बताओ दूसरा व्यक्ति कौन था? उसका सवाल क्या था? और महात्मा जी ने उसका क्या जवाब दिया?”  लुटेरे ने पूछा।


“दूसरा व्यक्ति वास्तव में महल में रहने वाला दंपत्ति है। उनकी एक बेहद खूबसूरत बेटी है जो कभी खुश नहीं रहती है। इसलिए उसके माता-पिता महात्मा जी से यह जानना चाहते थे। कि वे ऐसा क्या करें ताकि उनकी बेटी खुश रह सके।” हरिया बोला।


 “महात्मा जी ने इसका क्या जवाब दिया!” लूटेरे ने फिर पूछा।  


“महात्मा जी ने कहा है, जब उसके माता पिता उसकी शादी कर देंगे तो उनकी बेटी खुश रहने लगेगी!” हरिया ने बताया।  


“अच्छा बताओ उस दंपति ने तुम्हें क्या इनाम दिया।”  लुटेरे ने हरिया से फिर सवाल किया।  


“हां! वे दंपत्ति मुझसे कह रहे थे कि मैं उनकी बेटी से शादी कर लूं तो वह इनाम में मुझे अपना घर दे देंगे।”


“तो तुमने क्या किया? उससे शादी कर ली!”  लुटेरे ने आश्चर्य से पूछा।  “नहीं! मैंने शादी नहीं की। मैंने उन्हें बता दिया कि मेरा भाग्य तो मेरे पीछे-पीछे आ रहा है!”


“अच्छा अब यह बताओ महात्मा जी ने मेरा भाग्य उदय होने के विषय में क्या कहा है!”  


“महात्‍मा जी ने कहा है, जिस दिन से तुम लोगों की मदद करनी शुरू कर दोगे उस दिन से तुम्हारा भाग्य उदय हो जाएगा।” – हरिया बोला।  


यह सुनकर लूटेरा बोला,  “तुम मेरे सवाल का जवाब लेकर आए हो, मैंने तुम्हें अपना घोड़ा इनाम में देता हूँ।”   


यह सुनकर हरिया लुटेरे से कहता है,  “नहीं भाई मैं घोड़े का क्या करूंगा मेरे पीछे तो मेरा भाग्य ही रहा है मुझे इनाम नहीं चाहिए मैं तो बस जल्‍दी अपने घर पहुँच  जाना चाहता हूँ!”   


यह कहकर हरिया आगे बढ़ गया। घर पहुंचकर हरिया अपने भाग्य का इंतजार करने लगा। थके होने के कारण हरिया को नींद आ जाती है।  नींद में उसे वही महात्‍मा दिखाई देते हैं जिनसे मिलकर वह आया था।  सपने में महात्‍मा जी हरिया से कहते हैं-  “मैंने तुम्हारे भाग्‍य को तुम्हारे पीछे- पीछे भेजा था। पर तुमने उसे अपने पास आने ही नहीं दिया।” यह कहकर महात्मा जी अंतर्ध्यान हो जाते हैं।

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शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

भेड़िया आया… भेड़िया आया

एक बार एक लड़का था जिसके पिता ने एक दिन उससे कहा कि अब वह इतना बड़ा हो गया है कि भेड़ों की देखभाल कर सके।हर दिन वह भेड़ों को घास चरने के लिए ले जाता और उन पर निगरानी रखता। देखते ही देखते, भेड़ें बड़े हो गए और उनका ऊन भी घना हो गया था । परंतु वह लड़का दुखी था, वह इन उबाऊ भेड़ों पर नज़र नहीं रखना चाहता था, उसे भागना था, जी भर के खेलना था। इसलिए, उसने कुछ मज़ेदार करने का फैसला किया और एक दिन वह चिल्लाने लगा ‘भेड़िया! भेड़िया!’ इससे पहले कि भेड़िया किसी भेड़ को खा जाए, उसे भगाने के लिए पूरा गाँव पत्थरों के साथ दौड़ता हुआ वहाँ पहुँचा।

जब उन्होंने देखा कि वहाँ कोई भेड़िया नहीं है, तब वे उसे डाँटते – फटकारते हुए वहाँ से निकल गए कि कैसे वह उनका समय बर्बाद कर रहा था और बिना वजह के डरा भी रहा था। अगले दिन, लड़का फिर चिल्लाया ‘भेड़िया! भेड़िया!!’ और गाँव वाले फिर से उस भेड़िये को भगाने के लिए दौड़ते हुए वहाँ पहुँचे।


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लड़का उसने पैदा किए दर पर हस रहा था और गाँव वाले वहाँ से निकल गए, और उनमें से कुछ औरों से ज़्यादा क्रोधित थे। तीसरे दिन, जब वह लड़का एक छोटी पहाड़ी पर गया, तो उसने अचानक एक भेड़िए को अपनी भेड़ों पर हमला करते देखा। वह जितना हो सके उतने ज़ोर से चिल्लाया, “भेड़िया! भेड़िया! भेड़िया! भेड़िया!’ लेकिन इस बार कोई गाँव वाला उसके भेड़ों को बचाने नहीं आया क्योंकि उन्हें लगा कि वह फिर से मज़ाक कर रहा है।पहले बिना वजह सिर्फ ‘भेड़िया!’ चिल्लाने से, उस दिन उसने अपनी तीन भेड़ें खो दी। 

कहानी से सीख मिली: लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए कहानियाँ न बनाएं क्योंकि ऐसा करने से जब आपको वाकई में ज़रूरत होगी तब आपकी मदद करने के लिए कोई नहीं आएगा।

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बुद्धूमल का सपना टूटा

तुमने सुना होगा कि दिन में सपने देखना अच्छी बात नहीं है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो दिन में आँखें खोलकर सपने देखते हैं। क्या कहा! आँखें खोलकर कोई सपने कैसे देख सकता है? अरे भाई, देख सकता है- कुछ ऐसे।


एक थे बुद्धूमलजी। अपने नाम की तरह वे सच में बुद्धू ही थे। साथ में कमचोर भी थे। कामचोर यानी जो काम से मन चुराए।


तो एक दिन बुद्धूमलजी की माँ ने उनसे कहा, 'बेटा, तू अब बड़ा हो गया है, कुछ कामकाज सीख। जा, घर से बाहर निकलकर देख, सब लोग कितना काम करते हैं।'

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बुद्धूमलजी उस समय आलस में बिस्तर में पड़े हुए थे। उबासी लेते हुए वे उठे और घर ने निकलकर चल पड़े। वे थोड़ी ही दूर चले होंगे, तभी उन्होंने देखा कि एक बूढ़ी माई एक पेड़ के नीचे थककर बैठी हुई है। उसके सामने लकड़ियों का एक बड़ा-सा गट्ठर रखा हुआ था। बुद्धूमल ने बूढ़ी माई से पूछा, 'ए माई, कुछ काम मिलेगा क्या?'


बूढ़ी माई ने कहा, 'अरे भाई, मैं तो खूद बहुत ग़रीब हूँ। मैं किसी को क्या काम दे सकती हूँ! लकड़ियाँ बेचकर जो पैसे मिलते हैं, उससे ही अपना काम चलाती हूँ। आज चलते-चलते बहुत थक गई हूँ।'


'लाओ, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ।' बुद्धूमल ने कहा।


'तुम बड़े ही भले हो, भैया। अगर तुम यह गट्ठर मेरे घर तक पहुँचा दो तो इसमें से कुछ लकड़ियाँ मैं तुम्हें भी दे दूँगी।' बूढ़ी माई बोली।


बुद्धूमल खुश हो गए। उन्होंने गट्ठर सिर पर उठा लिया और चल पड़े। वे सोचते जा रहे थे - कोई बात नहीं, पैसे न सही लकड़ियाँ ही सही। अब इन लकड़ियों को बेचकर मुझे 20-25 रूपए तो मिल ही जाएँगे। उन रूपयों से मैं कुछ बीज खरीदूँगा। मेरे घर के बाहर जो थोड़ी-सी ज़मीन है, उस पर सब्ज़ियाँ उगाऊँगा। उन सब्ज़ियों को बेचकर जो पैसे मिलेंगे उन्हें थोड़ा-थोड़ा बचाकर थोड़ी और ज़मीन ख़रीद लूँगा। उस पर गेहूँ उगाऊँगा। फिर मुझे और बुहत सारे पैसे मिलेंगे। उन पैसों से एक ट्रैक्टर ख़रीद लूँगा। तब खेत जोतने में आसानी होगी। फ़सल को जल्दी से बाज़ार भी पहुँचा सकूँगा। ढेर सारे पैसे और मिल जाएँगे। उनसे एक बढ़िया घर ख़रीदूँगा। सब लोग कहेंगे कि बुद्धूमल कितना बुद्धीमान है।'


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बुद्धूमल अपने सपने में इतना खो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि आगे तालाब है, उनका पैर फिसला और वे छपाक से तालाब में गिर गए। साथ ही लकड़ियों का गट्ठर भी पानी में गिर गया।


बूढ़ी माई चिल्लाई, 'अरे भैया, वह तुमने क्या किया, मेरी लकड़ियाँ गीली कर दीं, अब मैं क्या बेचूँगी! मेरी पूरे दिन की मेहनत बेकार हो गई। अब इन गीली लकड़ियों को कौन ख़रीदेगा?'


बुद्धूमल पानी से बाहर निकले और बोले, 'माई, मुझे माफ़ कर दो। मैं अपने सपने में इतना खो गया था कि मुझे पता ही नहीं चला कि आगे तालाब है। मेरा तो लाखों का नुकसान हो गया माई!'


बुद्धूमल सिर पकड़कर बैठ गए। तब बूढ़ी माई बोली, ‘बेटा, दिन में सपने देखना अच्छी बात नहीं है। मेहनत करो और फिर देखो, तुम्हें सब कुछ अपने-आप मिल जाएगा।‘

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जादुई पेंसिल

एक गांव में कुशल नाम का एक लड़का रहता था। जो कि बहुत गरीब था। लेकिन उसे चित्र बनाने का बहुत शौक था। वह लकड़ी की सहायता से मिट्टी पर बहुत ही सुंदर चित्र बनाता था। उसके पास पेंसिल और कागज खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे।


एक दिन एक बूढ़ा आदमी उसके सामने आया। उसने कुशल को एक पेंसिल दी और कहा कि तुम इस पेंसिल से केवल गरीब लोगों के लिए ही चित्र बनाना और अगर कभी मेरी जरूरत पड़ी तो तुम इस पेंसिल की सहायता से ही मुझे बुला सकते हो। यह कहकर वह बूढ़ा आदमी गायब हो गया। इसके बाद कुशल ने एक आम का चित्र बनाया तो वह असली आम में बदल गया। इससे कुशल को पता लग गया कि यह कोई साधारण पेंसिल नहीं बल्कि जादुई पेंसिल है। फिर उसने अपने परिवार के लिए कुछ अच्छे कपड़े बनाएं और खाने की वस्तुएं बनाई।


अब वह उस पेंसिल की सहायता से गरीब लोगों की मदद करने लगा और गरीब लोगों को भोजन और कपडे बना कर देता था। जब यह बात गांव के राजा को पता लगी तो राजा ने कुशल को बुलाया और उसने कुशल को अपने बगीचे के लिए सोने का पेड़ बनाने के लिए कहा।

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लेकिन कुशल ने ऐसा करने से मना कर दिया और कहा की मै इसका प्रयोग केवल गरीब लोगों के लिए करता हूँ। आप तो पहले से ही बहुत अमीर है। यह सुनकर राजा को गुस्सा आया और उसने कुशल से वह पेंसिल छीन ली और खुद ही चित्र बनाने लगा। लेकिन उससे कुछ नहीं हुआ।


इसके बाद उसने वह पेंसिल वापिस कुशल को देकर चित्र बनाने को कहा और बोला की अगर तुम चित्र नहीं बनाओगे तो तुमको जेल में डाल देंगे। इस पर कुशल को बूढ़े आदमी की याद आयी। उसने बूढ़े आदमी का चित्र बनाया। जिससे बूढ़ा आदमी प्रकट हो गया। उसने राजा को समझाया की यह पेंसिल कुशल को केवल गरीब लोगों की मदद के लिए मिली है यदि इससे वह किसी अमीर व्यक्ति के लिए चित्र बनाएगा तो वह असल वस्तु में नहीं बदलेगा। इससे राजा को यह बात समझ में आ गयी और अपनी गलती का अहसास हो गया तो उसने कुशल को उपहार देकर छोड़ दिया। 

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है की हमें लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। 

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अंधेर नगरी चौपट राजा

एक बार की बात हैं। एक गुरू और शिष्य दोनों एक अन्जान नगर में पहुँचे। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि उस शहर में सबकुछ बहुत सस्ते में मिलता था और सबका भाव एक समान था। यानि एक टका में चाहे एक किलो सब्जी लो चाहे एक किलो सोना लो सबका भाव एक समान ही था।

उसमे ज़रा भी ऊंच नीच नहीं थी। इस प्रकार वहां के माहौल को देखते हुए चेला बहुत खुश हुआ। उसके को अब जैसे मजे ही हो गए। उसे अब वहां का माहौल खूब पसंद आने लगा। लेकिन उसके गुरु को ये बात बिल्कुल ठीक नहीं लगी। उन्होंने अपने चेले से कहा कि वत्स अब ज्यादा दिन यहाँ रहना ठीक नहीं हैं।

यहाँ का राजा बिल्कुल मुर्ख हैं और उसके राज में गधे घोड़े यानि बुद्धिमान और मुर्ख सब बराबर समझे जाते हैं। अर्थात यह एक मूर्खों की नगरी हैं, अगर यहाँ का राजा कह दे तो दिन को रात और रात को दिन माना जाता हैं।” इसलिए अब जल्दी ही हमें इस नगरी को छोड़कर चले जाना चाहिए।

अगर हम यहाँ रहे तो कभी भी मुसीबत में फंस सकते हैं।” यह बात चेले को पसंद नहीं आयी। उसने कहा कि गुरूजी मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं लगता। फिर भी अगर आप जाना चाहते हैं तो आप चले जाईये। मैं तो अब यहीं पर रहना चाहता हूँ।

गुरूजी ने अपने चेले को खूब समझाया कि वो उनकी बात मान ले और उनके साथ दूसरी जगह चले लेकिन चेले ने अपने गुरु की एक न सुनी।अब गुरूजी ने अकेले ही जाने का निश्चय किया और जाते जाते उन्होंने अपने चेले से कहा – देखो वत्स! अब जैसी तुम्हारी इच्छा। फिर भी तुम अपना ख्याल रखना और अगर कभी मुसीबत आन पड़े तो एक बार मुझे जरूर याद कर लेना। मैं उसी समय तुम्हारी मदद के लिए आ जाऊंगा।


और ऐसा कहकर गुरूजी अकेले ही वहां से चले गए।


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अब चेला अकेला ही खूब मजे से रहने लगा और खूब खा खाकर थोड़े ही दिनों में वो मोटा हो गया। अब एक दिन अचानक जोरदार बारिश हुई जिसके कारण एक घर की दीवार टूट गयी और उसके नीचे दबने से एक बकरी की मौत हो गई।


अब बकरी के मालिक ने वहां के राजा से शिकायत कर दी। राजा ने जब बकरी के मालिक को बुलाया तो उसने कहा कि पड़ौसी की दीवार गिरने से मेरी बकरी की मौत हुई हैं।


तो राजा ने उसके पड़ौसी को बुलाया और उससे पूछा -“देखो तुम्हारी दीवार गिरने से एक बकरी की मौत गयी हैं। अब इसकी सजा मौत हैं।”


ये सुनकर वो आदमी घबराकर बोला – “नहीं राजा साहब! इसमें मेरी कोई गलती नहीं हैं। दरअसल ये सारी गलती तो उस दीवार को चुनने वाले कारीगर की हैं। शायद उसी ने दिवार ठीक से नहीं बनायीं होगी तभी वो बारिश से गिर गयी।”


तो राजा ने उस कारीगर को भी बुलाया और उससे कहा – ” देखो तुमने कैसी घटिया दीवार चुनी हैं जो एक ही बारिश में गिर पड़ी और जिससे एक बकरी को मौत हो गयी हैं। इसलिए अब मैं तुम्हें फांसी की सजा देता हूँ।” ये सुनकर कारीगर बहुत घबरा गया और उसने कहा – “महाराज! इसमें मेरी कोई गलती नहीं हैं क्यूंकि मैंने तो पूरी ईमानदारी से उस दीवार को चुना था। अब ये तो उस व्यक्ति की कमी हो सकती हैं जिसने उस समय दीवार का मसाला तैयार किया था।”


“लगता हैं उसी ने ठीक से मसाला तैयार नहीं किया होगा। यदि वो पूरी ईमानदारी से काम करता तो आज वो बकरी जिन्दा होती।”


अब राजा ने उस व्यक्ति को भी दरबार में बुलाया और उससे कहा – “देखो तुमने कितना घटिया काम किया हैं, तुमने उस दीवार को चुनने का मसाला भी ठीक से तैयार नहीं किया। तुमने सरासर कामचोरी की हैं। अतः अब तुम्हें फांसी की सज़ा दी जाती हैं।


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ये सुनकर वो आदमी बहुत रोया और उसने राजा से खूब मिन्नते की कि उसकी जान बख्श दी जाये लेकिन राजा अपने फैसले पर कायम रहा। अब फांसी का फंदा तैयार किया जाने लगा। जब उस आदमी को फांसी दी जाने लगी तो फांसी का फंदा उसके गले में ढीला रह गया। यानि फंदा थोड़ा ज्यादा बड़ा बन गया था।


अब क्या किया जाये क्यूंकि फंदा थोड़ा बड़ा बन गया फिर भी फांसी तो हर हाल में दी जानी थी फिर चाहे किसी दूसरे को ही क्यों न देनी पड़े। इसके लिए अब ऐसे आदमी की तलाश की जाने लगी जिसके गले में वो फांसी का फंदा फिट बैठ सकें।


अब राजा के सिपाही ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हुए उसी चेले के घर तक जा पहुंचे। उन्होंने उस चेले को पकड़ा और जब उसके गले का नाप लिया तो फंदा एकदम फिट बैठ गया। अब सिपाही उस चेले को लेकर आये और फांसी पर चढ़ाने की तैयारी करने लगे।


ये देखकर चेला बहुत घबरा गया। उसने राजा से खूब मिन्नतें की कि उसकी जान बख्श दी जाये क्यूंकि उसने तो कोई गुनाह ही नहीं किया हैं। लेकिन राजा ने उसकी भी बात नहीं सुनी और चेले से कहा – “देखो युवक हम किसी और को फांसी की सजा का हुक्म सुना चुके हैं लेकिन उसके गले में ये फंदा बहुत ढीला हैं। इसलिए उसके बदले में अब तुम्हें फांसी दी जा रही हैं। अब मैं अपना हुक्म तो वापस नहीं ले सकता। इसलिए इस फंदे पर किसी को तो झूलना ही पड़ेगा न!”


अब तो चेला बहुत घबरा गया क्यूंकि मौत अब उसे अपने सामने ही नजर आ रही थी। तभी उसे अपने गुरु की बात याद आयी और उसने मन ही मन अपने गुरु को याद किया।


इसके बाद उसके गुरु राजा के दरबार में पहुँचे और कहा- “हैं वत्स ये तो तुम्हारे लिए बहुत सौभाग्य की बात हैं कि तुम ऐसे समय मृत्यु को प्राप्त हो रहे हो जब ऐसा योग बन रहा हैं जब मृत्यु को प्राप्त होने वाला सीधा परमात्मा से मिलता हैं। यानि उसे स्वर्ग में जगह मिलती हैं और उसे हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती हैं।”


ये सुनकर राजा ने कहा – “हैं गुरुवर! अगर ऐसा हैं तो फिर मैं स्वयं ही इस फांसी पर चढूँगा।” फिर उसने सैनिकों को हुक्म दिया कि अब फांसी के फंदे पर उस यूवक को नहीं बल्कि उसे ही फांसी पर चढ़ाया जाये।


इसके बाद राजा को जल्दी से फांसी पर चढ़ा दिया गया। और इस प्रकार एक चौपट राजा अपनी ही मूर्खता से मारा गया।

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सोमवार, 22 अगस्त 2022

काबुलीवाला - रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी

मेरी पांच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डांट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता, मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।


    सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया-''बाबूजी! रामदयाल दरबान कल 'काक' को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?''

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    विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- ''बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुंह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।''


    इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, बाबूजी, मां तुम्हारी कौन लगती है?''


    मन-ही-मन में मैंने कहा साली और फिर बोला- ''मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।''


     तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटाके' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।

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    मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ''काबुल वाला, ओ काबुल वाला।''


    मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बांधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाये, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियां लिये, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए वह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवां अध्‍याय आज अधूरा रह जायेगा।


    किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्योंही काबुली ने हंसते हुए उसकी ओर मुंह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्योंही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहां छिप गई? उसके छोटे से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूंढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्ची निकल सकती हैं।


    इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।


    कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।


    अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा- ''बाबूजी, आपकी बच्ची कहां गई?''


    मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देनी चाहीं, पर उसने न लीं, और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।

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    इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था? देखूं तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बैंच पर बैठी हुई काबुली से हंस-हंसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पांच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा- ''इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना?'' कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली?


    कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।


    मिनी की मां एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिये डांट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी- ''तूने यह अठन्नी पाई कहां से, बता?''


    मिनी ने कहा- ''काबुल वाले ने दी है।''


    ''काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?''


    मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा-''मैंने मांगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।''


    मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।


    मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।


    देखा कि इस नई मित्रता में बंधी हुई बातें और हंसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हंसती हुई पूछती- ''काबुल वाला और काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता- ''हां बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हंसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।


    उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता-''तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?''


    हमारे देश की लड़कियां जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिये बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुध्द था। उल्टे वह रहमत से ही पूछती- ''तुम ससुराल जाओगे?''


    रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूंसा तानकर कहता- ''हम ससुर को मारेगा।''


    सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।


    देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूं, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

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    इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूं, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूं। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊंचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊंटों की कतार जा रही है। ऊंचे-ऊंचे साफे बांधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊंट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।


    मिनी की मां बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, सांप, बाघ, रोगों, मलेरिया, तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।


    रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- ''क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?'' इत्यादि।


    मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, अत: मिनी की मां के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।


    हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, लेकिन फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षडयंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सेवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूं तो वह संध्या को हाजिर है। अंधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।


    लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी 'ओ काबुल वाला' पुकारती हुई हंसती-हंसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।


    एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।


    देखूं तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बांधे लिये जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाही बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा- ''क्या बात है?''


    कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपये उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।


    रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ''काबुल वाला! ओ काबुल वाला!'' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।


    रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा- ''तुम ससुराल जाओगे।''


    रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- ''हां, वहीं तो जा रहा हूं।''


    रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हंसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- ''ससुर को मारता, पर क्या करूं, हाथ बंधे हुए हैं।''


    छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।


    रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।


    और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियां जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।


    कितने ही वर्ष बीत गये? वर्षों बाद आज फिर एक शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जायेगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी मां-बाप के घर में अंधेरा करके ससुराल चली जायेगी।


    सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।


    हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।


    सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का तांता बंधा हुआ है। आंगन में बांसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाये जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की तो कोई गिनती ही नहीं है।


    मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।


    पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।


    मैंने पूछा-''क्यों रहमत, कब आये?''


    उसने कहा-''कल शाम को जेल से छूटा हूं।''


    सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आंखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया? मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहां से टल जाये तो अच्छा हो।


    मैंने उससे कहा- ''आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।''


    मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला- ''क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?''


    शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुल वाला, ओ काबुल वाला' पुकारती हुई दौड़ी चली आयेगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहां तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से मांग-तांगकर लेता आया था? उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।


    मैंने कहा- ''आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी?''


    मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।


    मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊं, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।


    वह पास आकर बोला- ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजियेगा।''


    मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा- ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूं। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''


    कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।


    देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे से हाथ के छोटे से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं हाथ में थोड़ी सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।


    देखकर मेरी आंखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूं। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूं। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालांकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।


    उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हंसते हुए बोला- ''लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?''

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    मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल-सुर्ख हो उठे। उसने मुंह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जबकि रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन मे एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।


    मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी सांस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पायेगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।


    मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ''रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पायेगी।''    


    रहमत को रुपये देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छांटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब-कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है, कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

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शनिवार, 20 अगस्त 2022

श्रद्धा और भक्‍ति की कसौटी

एक साधु महाराज श्री रामायणजी की कथा सुनाते थे । उनकी कथा सुनकर लोग आनंद विभोर हो जाते थे । साधु महाराज का एक नियम था, प्रतिदिन वह कथा प्रारंभ करने से पहले हनुमानजी को कथा सुनने के लिए आमंत्रित करते थे । वह जहां पर कथा सुनाते थे, वहां उन्‍होंने कथा के स्‍थान पर हनुमानजी को विराजनेके लिए आसन के रूप में एक गद़्‍दी भी रखी हुई थी । ‘‘आइए, हनुमंतजी विराजिए’’ यह कहकर हनुमानजी का आवाहन करते थे, उसके बाद एक घण्‍टा कथा सुनाते थे ।


एक महाशय प्रतिदिन रामकथा सुनने आते थे । वह भक्‍तिभाव से कथा सुनते थे । परंतु एक दिन उनके मन में विचार आया कि महाराज कथा आरंभ करने से पहले ‘‘आइए, हनुमंत जी बिराजिए’’ ऐसा कहकर हनुमानजी को बुलाते हैं, तो क्‍या वास्‍तव में हनुमान जी यहां पर आते होंगे ?’


एक दिन उन्‍होंने साधु महाराज से पूछ ही लिया, ‘महाराज, आप रामायण की कथा बहुत अच्‍छी सुनाते हैं । हमें बडा आनंद मिलता है, परंतु आप जो गद्दी प्रतिदिन हनुमान जी को देते हैं, उसपर क्‍या हनुमानजी वास्‍तव में विराजमान होते हैं ?’

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साधु महाराज ने कहा, ‘हां, यह मेरी श्रद्धा है । हनुमानजी का वचन है कि जहां रामकथा सुनाई और सुनी जाती है, वहां हनुमानजी अवश्‍य पधारते हैं । उस व्‍यक्‍ति ने कहा, ‘महाराज हनुमानजी यहांपर आते हैं, इसपर हम कैसे विश्‍वास करें ? आप इसका कोई ठोस प्रमाण दीजिए । आपको यह प्रमाणित करके दिखाना चाहिए कि हनुमान जी आपकी कथा सुनने के लिए प्रतिदिन आते हैं ।’


महाराज ने बहुत समझाया कि, आस्‍था को किसी प्रमाण की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए । यह तो भक्‍त और भगवान के बीच का प्रेमरस है, व्‍यक्‍तिगत श्रद्धा का विषय है । आप कहो तो मैं प्रवचन करना बंद कर दूं अथवा आप कथा में आना छोड दो ।


परंतु वह व्‍यक्‍ति नहीं माना । महाराज से कहता ही रहा कि आप कई दिनों से दावा करते आ रहे हैं । यह बात और स्‍थानों पर भी आप कहते होंगे, इसलिए महाराज आपको तो प्रमाणित करना ही होगा कि हनुमानजी कथा सुनने आते हैं ।


इस तरह दोनों के बीच विवाद होता रहा । अंत में साधु महाराज ने कहा, ‘हनुमान जी आते हैं अथवा नहीं इसका प्रमाण मैं कल आपको दूंगा । कल कथा प्रारंभ होने से पहले एक प्रयोग करेंगे । हनुमानजी को मैं जिस गद्दी पर विराजित होने को कहता हूं, आप उस गद्दी को आज अपने घर ले जाना और कल अपने साथ वह गद्दी ले आना । उसके बाद मैं गद्दी यहां रखूंगा । कथा का आरंभ करने से पहले हनुमानजी को बुलाऊंगा । कुछ समय बाद आप गद्दी उठाकर देखना । यदि आपने गद्दी उठा ली, तो समझना कि हनुमानजी नहीं आए हैं ।’


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वह व्‍यक्‍ति इस कसौटी के लिए तैयार हो गया । महाराज ने कहा, ‘हम दोनों में से जो पराजित होगा वह क्‍या करेगा, इसका निर्णय भी कर लें ? यह तो सत्‍य की परीक्षा है ।’ उस व्‍यक्‍ति ने कहा, ‘मैं गद्दी नहीं उठा पाया तो आपसे दीक्षा ले लूंगा । परंतु आप पराजित हो गए तो क्‍या करोगे ?’ साधु ने कहा, ‘मैं कथावाचन छोडकर आप का सेवक बन जाऊंगा ।’


अगले दिन कथा सुनने के लिए बहुत भीड एकत्रित हो गई । सारे लोग भक्‍ति, श्रद्धा, प्रेम और विश्‍वास की परीक्षा देखने आ पहुंचे ।


साधु महाराज और वह व्‍यक्‍ति कथा के स्‍थान पर आए । उस व्‍यक्‍ति ने गद्दी महाराज के हाथ में दी । प्रतिदिन हनुमानजी को विराजित होने के लिए जहां गद्दी रखते थे, उसी स्‍थान पर वह रखी गई ।


महात्‍मा जी ने आर्तता से मंगलाचरण किया और बोले, ‘‘आइए हनुमंत जी बिराजिए ।’’ ऐसा बोलते ही साधु महाराज की आंखों में आंसू आ गए । मन ही मन महाराज बोले, ‘हे प्रभु ! आज मेरी नहीं आपकी ही परीक्षा है । मैं तो एक साधारण सा व्‍यक्‍ति हूं । मेरी भक्‍ति और आस्‍था की लाज रखना, प्रभु ।’


साधु महाराज ने प्रार्थना की और उस व्‍यक्‍ति को गद्दी उठाने के लिए निमंत्रण दिया । सभीकी आंखे गद्दी पर जम गई ।


साधु महाराज बोले, ‘महाशय, आप गद्दी उठाइए ।’


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उस व्‍यक्‍ति ने गद्दी उठाने के लिए हाथ बढाया, परंतु आश्‍चर्य की बात यह है कि वह गद्दी को स्‍पर्श भी नही कर पा रहा था ! जो भी कारण रहा हो, उसने तीन बार हाथ बढाया, किन्‍तु तीनों बार गद्दी को स्‍पर्श भी नहीं कर पाया ।


महाराज देख रहे थे, गद्दी उठाना तो दूर वह व्‍यक्‍ति गद्दी को छू भी नहीं पा रहा था । तीनों बार प्रयास करने पर वह पसीने से तर-बतर हो गया । वह व्‍यक्‍ति समझ गया कि, यह साक्षात हनुमानजी का ही चमत्‍कार है और वह साधु महाराज के चरणों में गिर पडा और बोला, ‘महाराज गद्दी उठाना तो दूर, पता नहीं ऐसा क्‍या हो रहा है कि मेरा हाथ भी गद्दी तक नहीं पहुंच पा रहा है । मैं अपनी हार स्‍वीकार करता हूं ।’


जिस प्रकार उस व्‍यक्‍ति ने कहा था, उसी अनुसार उसने साधु महाराज से दीक्षा ली और भगवान की सेवा में जुड गया । 

कहते हैं कि श्रद्धा और भक्‍ति के साथ की गई आराधना में बहुत शक्‍ति होती है । प्रभु की मूर्ति पाषाण की ही होती है परंतु भक्‍त के भाव से उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है और स्‍वयं प्रभु उसमें बिराजते हैं ।

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गरीब किसान की कहानी

एक बार की बात है, किसी गाँव मे एक गरीब किसान अपने पत्नी और दो बच्चो के साथ रहता था, वह काफी गरीब था, उसके पास थोड़ी सी जमीन थी, जिसमे बहुत ही कम मात्रा मे फसल हो पाती थी, जिस कारण से उस गरीब किसान का गुजारा किसी तरह से चल पाता था, लेकिन वह किसान गरीब जरूर था, लेकिन वह बहुत ही ईमानदार था, कभी भी उसने गलत तरीके से पैसे कमाने के बारे मे नही सोचता था। किसान के बच्चे छोटे थे, जिस कारण से किसान को उनके पालन पोषण की भी चिंता हमेशा सताती रहती थी, जिस कारण से गरीब किसान और पत्नी हमेसा चिंतित रहते थे, गरीब किसान अपनी पत्नी के साथ अपने खेत मे खूब मेहनत करता था, लेकिन उसके मन मुताबिक उतना फसल नही हो पाता था, की उसके परिवार का गुजारा हो सके।


कभी कभी ऐसा भी वक्त आता था की उस गरीब किसान के पास खाने के अन्न भी नही होते थे, फिर उसकी पत्नी दूसरों के घरो मे काम करके अनाज लाती थी, जिससे उनको भोजन मिल पाता था, गरीबी मे ऐसे ही उस गरीब किसान के परिवार का दिन गुजारा हो रहा था, तो एक गरीब किसान की पत्नी बोली, क्यो ना आप शहर चले जाते है, क्यूकी इस छोटे से खेत से हम लोगो का गुजारा तो हो नहीं पा रहा है, तो ऐसे मे आपको शहर मे कोई काम मिल जाएगा, जिससे हम लोगो के दिन अच्छे हो जाएगे।


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पत्नी की यह बात सुनकर किसान देर रात तक सोचता रहा, फिर उसने अगले दिन शहर जाने का फैसला किया, फिर अपनी पत्नी से विचार विमर्श करने के बाद वह गरीब किसान शहर जाने के लिए निकाल पड़ा, काफी दूर चलने के बाद वह गरीब किसान शहर के एक रिहायशी इलाके मे पहुच गया, लेकिन वह गरीब किसान इस शहर मे अंजान था, उसका कोई जानने वाला नही था, वह काफी थक भी गया था, और एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम कर रहा था, तभी उसके पास एक बड़ी गाड़ी आकर रुकी,


जिसमे से एक सूट बूट पहना एक व्यक्ति निकला और वह पास के फल के दुकान से कुछ फल खरीदने गया, फिर वह सूट बूट वाला व्यक्ति अपने हाथ मे पर्श और फल का थैला लेकर फिर से गाड़ी मे बैठने गया, की अचानक से उस व्यक्ति का पर्श जमीन पर गिर गया, जिसमे काफी पैसे और ढेर सारे कागजात थे, जो की बहुत कीमती भी थे,


और फिर गिरे पर्श से अंजान वह सूट बूट वाला व्यक्ति अपने गाड़ी मे बैठकर आगे निकल गया, तो पास मे बैठा गरीब किसान इस घटना को देख लिया था, और वह फिर उठकर उस पर्श के पास आया, और पर्श को उठा लिया, जिसमे उस व्यक्ति का घर का पता भी था,


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तो वह गरीब किसान भले ही गरीब था, लेकिन वह ईमानदार था, उसने उस पर्श को वापस करने के लिए विचार किया, फिर वह लोगो की मदद से दिये पते पर पहुच गया, जहा उस व्यक्ति का बहुत बड़ा घर था, और गेट के अंदर बहुत बड़ा बगीचा भी था,


तो वह गरीब किसान वहा पर रहने वाले गार्ड को बुलाया और उस व्यक्ति का फोटो दिखाकर उनसे मिलने के लिए बोला, तो गार्ड ने उसको उस सूट बूट वाले व्यक्ति से मिलाने के लिए बंगले के अंदर ले गया,


फिर थोड़ी देर बाद वह सूट बूट वाला व्यक्ति गरीब किसान के सामने आ गया, और आने का कारण पूछा तो उस गरीब किसान ने अपने जेब से पर्श लौटाते हुए गिरे हुए पर्श की सारी घटना उस व्यक्ति से बता दिया।


इससे वह व्यक्ति गरीब किसान के ईमानदारी से काफी प्रसन्न हुआ और फिर उसी पर्श से कुछ पैसे निकालते हुए गरीब किसान को देने लगा, तो वह गरीब किसान हाथ जोड़ते हुए बोला “साहब हम भले ही गरीब है, लेकिन अपनी ईमानदारी का मोल नही लेते है, अगर देना ही है तो हम इस शहर मे अंजान है, और पहली बार आए है, इस शहर मे हमारा कोई जानने वाला नही है, अगर कुछ देना ही है, तो आप हमे कोई काम ही दिला दे, तो आपका बड़ा अहसान होगा”


गरीब किसान की यह बात सुनकर वह व्यक्ति बहुत ही प्रभावित हुआ और बोला अगर आप काम चाहते है, तो आप एक किसान है, तो आपको पेड़ पौधो की बारे मे अच्छी जानकारी होगी, तो चाहो तो आप हमारे इस बगीचे के लिए माली के रूप मे काम कर सकते है, जहा पर आपको अच्छी पगार के साथ साथ यही रहने के लिये कमरा, और खाना भी मिल जाएगा, अगर आप चाहो तो यहा काम कर सकते है।


गरीब किसान उस व्यक्ति की बात सुनकर वहा काम करने के लिए राजी हो गया, इस तरह ईमानदारी के चलते उस गरीब किसान को अंजान शहर मे भी अच्छा काम मिल गया, और फिर धीरे धीरे उस गरीब किसान के परिवार के दिन भी सुधरने लगे।


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कहानी से शिक्षा :- तो हमे भी अपने जीवन मे कभी भी लालच नही करना चाहिए, जो हमारे पास ईमानदारी का गुण है अगर उसके साथ जीवन जीते है, तो हमारे साथ हमेशा अच्छा ही होगा !!

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

जीवन के हर पल को जियो

किराने की एक दुकान में एक ग्राहक आया और दुकानदार से बोला - भइया, मुझे 10 किलो बादाम दे दीजिए। 
दुकानदार 10 किलो तौलने लगा। तभी एक कीमती कार उसकी दुकान के सामने रुकी और उससे उतर कर एक सूटेड बूटेड आदमी दुकान पर आया,और बोला - भाई 1 किलो बादाम तौल दीजिये।

दुकानदार ने पहले ग्राहक को 10 किलो बादाम दी, फिर दूसरे ग्राहक को 1 किलो दी..।

जब 10 किलो वाला ग्राहक चला गया तब कार सवार ग्राहक ने कौतूहलवश दुकानदार से पूछा - ये जो ग्राहक अभी गये है यह कोई बड़े आदमी है या इनके घर में कोई कार्यक्रम है क्योंकि ये 10 किलो लेकर गए हैं।


दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा - अरे नहीं भइया, ये एक सरकारी विभाग में चपरासी हैं लेकिन पिछले साल जब से इन्होंने एक विधवा से शादी की है जिसका पति लाखों रुपये उसके लिए छोड़ गया था, तब से उसी के पैसे को खर्च कर रहे हैं.. ये महाशय 10 किलो हर माह ले जाते हैं। "

इतना सुनकर दूसरे ग्राहक ने भी 1 की बजाय 10 किलो बादाम ले ली ।

10 किलो बादाम लेकर जब घर पहुँचे तो उसकी बीवी चौंक कर बोली - ये किसी और का सामान उठा लाये क्या? 10 किलो की क्या जरूरत अपने घर में..?


भैया जी ने उत्तर दिया - पगली मेरे मरने के बाद कोई चपरासी मेरे ही पैसे से 10 किलो बादाम खाए.. तो जीते जी, मैं क्यों 1 किलो खाऊं..।"

*निष्कर्ष: अपनी कमाई को बैंक में जमा करते रहने के बजाय अपने ऊपर भी खर्च करते रहना चाहिए। क्या पता आपके बाद आपकी गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग ही हो।*

इन्जॉय करिये जीवन के हर पल को।

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बुधवार, 17 अगस्त 2022

किसान और चिड़िया की कहानी

एक गाँव में एक किसान रहता था. उसका गाँव के बाहर एक छोटा सा खेत था. एक बार मक्के की फसल बोने के कुछ दिनों बाद उसके खेत में चिड़िया ने घोंसला बना लिया. कुछ समय बीता, तो चिड़िया ने वहाँ दो अंडे भी दे दिए. उन अंडों में से दो छोटे-छोटे बच्चे निकल आये. वे बड़े मज़े से उस खेत में अपना जीवन गुजारने लगे.

कुछ महीनों बाद फसल कटाई का समय आ गया. गाँव के सभी किसान अपने खेतों की फ़सल की कटाई में लग गए. अब चिड़िया और उसके बच्चों का वह खेत छोड़कर नए स्थान पर जाने का समय आ गया था. एक दिन खेत में चिड़िया के बच्चों ने किसान को यह कहते सुना कि कल मैं फ़सल कटाई के लिए अपने पड़ोसी से पूछूंगा और उसे खेत में भेजूंगा. यह सुनकर चिड़िया के बच्चे परेशान हो गए. उस समय चिड़िया कहीं गई हुई थी. जब वह वापस लौटी, तो बच्चों ने उसे किसान की बात बताते हुए कहा, “माँ, आज हमारा यहाँ अंतिम दिन है. रात में हमें दूसरे स्थान के लिए यहाँ से निकला होगा.”


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चिड़िया ने उत्तर दिया, “इतनी जल्दी नहीं बच्चों. मुझे नहीं लगता कि कल खेत में फसल की कटाई होगी.” चिड़िया की कही बात सही साबित हुई. दूसरे दिन किसान का पड़ोसी खेत में नहीं आया और फ़सल की कटाई न हो सकी. शाम को किसान खेत में आया और खेत को जैसे का तैसा देख बुदबुदाने लगा कि ये पड़ोसी तो नहीं आया. ऐसा करता हूँ कल अपने किसी रिश्तेदार को भेज देता हूँ. चिड़िया के बच्चों ने फिर से किसान की बात सुन ली और परेशान हो गए. जब चिड़िया को उन्होंने ये बात बताई, तो वह बोली, “तुम लोग चिंता मत करो. आज रात हमें जाने की ज़रुरत नहीं है. मुझे नहीं लगता कि किसान का रिश्तेदार आएगा.” ठीक ऐसा ही हुआ और किसान का रिश्तेदार अगले दिन खेत नहीं पहुँचा. चिड़िया के बच्चे हैरान थे कि उनकी माँ की हर बात सही हो रही है.


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अगली शाम किसान जब खेत आया, तो खेत की वही स्थिति देख बुदबुदाने लगा कि ये लोग तो कहने के बाद भी कटाई के लिए आते नहीं है. कल मैं ख़ुद आकर फ़सल की कटाई शुरू करूंगा. चिड़िया के बच्चों ने किसान की ये बात भी सुन ली. अपनी माँ को जब उन्होंने ये बताया तो वह बोली, “बच्चों, अब समय आ गया है ये खेत छोड़ने का. हम आज रात ही ये खेत छोड़कर दूसरी जगह चले जायेंगे. दोनों बच्चे हैरान थे कि इस बार ऐसा क्या है, जो माँ खेत छोड़ने को तैयार है. उन्होंने पूछा, तो चिड़िया बोली, “बच्चों, पिछली दो बार किसान कटाई के लिए दूसरों पर निर्भर था. दूसरों को कहकर उसने अपने काम से पल्ला झाड़ लिया था. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. इस बार उसने यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है. इसलिए वह अवश्य आएगा.”

उसी रात चिड़िया और उसके बच्चे उस खेत से उड़ गए और कहीं और चले गए. 

सीख – दूसरों की सहायता लेने में कोई बुराई नहीं है. किंतु यदि आप समय पर काम शुरू करना चाहते हैं और चाहते हैं कि वह समय पर पूरा हो जाये, तो उस काम की ज़िम्मेदारी स्वयं लेनी होगी.

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सोच बदलो, जिंदगी बदल जायेगी

एक गाँव में सूखा पड़ने की वजह से गाँव के सभी लोग बहुत परेशान थे, उनकी फसले खराब हो रही थी, बच्चे भूखे-प्यासे मर रहे थे और उन्हें समझ नहीं आ रहा था की इस समस्या का समाधान कैसे निकाला जाय। उसी गाँव में एक विद्वान महात्मा रहते थे। गाँव वालो ने निर्णय लिया उनके पास जाकर इस समस्या का समाधान माँगा जाए, सब लोग महात्मा के पास गये और उन्हें अपनी सारी परेशानी विस्तार से बतायी, महात्मा ने कहा कि आप सब मुझे एक हफ्ते का समय दीजिये मैं आपको कुछ समाधान ढूँढ कर बताता हूँ ।


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गाँव वालो ने कहा ठीक है और महात्मा के पास से चले गये। एक हफ्ते बीत गये लेकिन साधू महात्मा कोई भी हल ढूँढ न सके और उन्होंने गाँव वालो से कहा कि अब तो आप सबकी मदद केवल ऊपर बैठा वो भगवान ही कर सकता है। अब सब भगवान की पूजा करने लगे भगवान को खुश करने के लिये और भगवान ने उन सबकी सुन ली और उन्होंने गाँव में अपना एक दूत भेजा। गाँव में पहुँचकर दूत ने सभी गाँव वालो से कहा कि “आज रात को अगर तुम सब एक-एक लोटा दूध गाँव के पास वाले उस कुवे में बिना देखे डालोगे तो कल से तुम्हारे गाँव में घनघोर बारिश होगी और तुम्हारी सारी परेशानी दूर हो जायेगी।” इतना कहकर वो दूत वहा से चला गया ।
गाँव वाले बहुत खुश हुए और सब लोग उस कुवे में दूध डालने के लिये तैयार हो गये लेकिन उसी गाँव में एक कंजूस इंसान रहता था उसने सोचा कि सब लोग तो दूध डालेगें ही अगर मैं दूध की जगह एक लोटा पानी डाल देता हूँ तो किसको पता चलने वाला है। रात को कुवे में दूध डालने के बाद सारे गाँव वाले सुबह उठकर बारिश के होने का इंतेजार करने लगे लेकिन मौसम वैसा का वैसा ही दिख रहा था और बारिश के होने की थोड़ी भी संभावना नहीं दिख रही थी ।


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देर तक बारिश का इंतेजार करने के बाद सब लोग उस कुवे के पास गये और जब उस कुवे में देखा तो कुवा पानी से भरा हुआ था और उस कुवे में दूध का एक बूंद भी नहीं था। सब लोग एक दूसरे की तरफ देखने लगे और समझ गये कि बारिश अभी तक क्यों नहीं हुई। और वो इसलिये क्योँकि उस कंजूस व्यक्ति की तरह सारे गाँव वालो ने भी यही सोचा था कि सब लोग तो दूध डालेगें ही, मेरे एक लोटा पानी डाल देने से क्या फर्क पड़ने वाला है और इसी चक्कर में किसी ने भी कुवे में दूध का एक बूँद भी नहीं डाला और कुवे को पानी से भर दिया।


शिक्षा:- इसी तरह की गलती आज कल हम भी करते रहते हैं, हम सब सोचते है कि हमारे एक के कुछ करने से क्या होने वाला है लेकिन हम ये भूल जाते है कि “बूंद-बूंद से सागर बनता है।


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शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

कठिन परिस्थिति में भी हिम्मत न हारे

यह कहानी एक ऐसे नौजवान की है जिसने कभी भी हिम्मत नहीं हारी। उस नौजवान को तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। अपने छात्र जीवन में वह अक्सर अपने मित्रों से पुस्तके मांग कर पढ़ाई किया करता। दरअसल पुस्तकें खरीदने के लिए उसके पास पैसे नहीं होते थे क्योंकि उसका परिवार बहुत गरीब था। कई बार ऐसा भी हुआ उसने भूखे रहकर पढ़ाई की और भोजन का पैसा बचाकर पुस्तके खरीदी। यूँ हीं वह हर वर्ष क्लास में अच्छे नंबरों से पास होता था।

एक दिन उस नौजवान ने मन में सोचा- पैसा तो पास में है नहीं अब आगे की पढ़ाई कैसे होगी? तभी उसके मन में विचार आया । उसने अपनी समस्या अपने एक मित्र को बताई। मित्र ने कहा- जूनागढ़ के राजा अच्छे नंबरों से पास होने वाले छात्रों को अपने खर्चे से विदेशों में पढ़ाई के लिए भेजते हैं ।

उस नौजवान के मित्र के पिता ने यह बात जूनागढ़ के राजा को बताई तो उन्होंने तुरंत उस नौजवान को बुलाया और कहा तुम उच्च शिक्षा के लिए लंदन जाओ तुम्हारी पढ़ाई की व्यवस्था हो जाएगी। वह नौजवान खुशी-खुशी लंदन जाकर पढ़ाई करने लगा। तीन-चार माह तक तो राजघराने की सहायता समय-समय पर मिलती रही लेकिन उसके बाद सहायता मिलना बंद हो गई। अब नौजवान के सामने दो समस्या थी एक तो पेट भरना और दूसरा पढ़ाई का खर्च। फिर भी नौजवान ने हिम्मत नहीं हारी। इधर-उधर छोटा-मोटा काम करके कुछ पैसों का जुगाड़ कर लिया करता ।

नौजवान पैसों की तंगी के कारण सादे कपड़े पहनता, अपने जूतों पर स्वयं पॉलिश किया करता, कपड़े भी स्वयं धोया करता। इस प्रकार जो बचत हुआ करता उससे वह पुस्तके खरीदा करता। एक बार उसे अर्थशास्त्र की एक पुस्तक की सख्त जरूरत थी और वह पुस्तक इतनी मांग थी कि उसके बजट से बाहर थी। बिना पुस्तक के तो पढ़ाई संभव नहीं थी इसलिए वह एक पुरानी पुस्तकों की दुकान पर पहुंचा। वहां अर्थशास्त्र की पुस्तक देखकर वह मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ । 10 पाउंड देकर उसने वह पुस्तक खरीद ली। पुस्तक खरीद सीधे एक सस्ते होटल में पहुंचा । खाने की मेज पर बैठकर पुस्तक पढ़ने लगा। पुस्तक से नजरें हटाकर जैसे ही उसने मेज की तरफ देखा तो बैरा मुस्कुराते हुए भोजन की प्लेट लिए खड़ा था ।


तभी नौजवान को ध्यान आया कि जेब तो खाली है, सारे पैसों की तो पुस्तकें खरीद ली है। अब क्या किया जाए।फिर उसने बात बना कर दबी मुस्कान के साथ कहा -‘क्षमा करना मेरे भाई.. मुझे ध्यान नहीं रहा। आज मेरा व्रत है।’ यह कहकर उस नौजवान की आंखें डबडबा आई । उसने अपनी जिंदगी में पहली बार झूठ बोला था । होटल से निकलकर वह अपने रूम पर पहुंचे और पूरे 10 दिन केवल ब्रेड और गुड़ खाकर गुजारा करता रहा क्योंकि 10 दिन की भोजन के पैसे तो पुस्तक खरीदने में खर्च हो गए थे। तो दोस्तों अब तो आप जरूर जानना चाहेंगे की वह नौजवान कौन था ? यह नौजवान था- ‘भीमराव अंबेडकर’। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी । परिस्थिति कैसी भी हो उन्होंने अपने हौसले बुलंद रखें। आगे चलकर जिसने हमारे देश के संविधान की रचना की हमारे देश के गौरव में इतिहास में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है।